याद......

माँ  तुम  मुझे  बहुत याद आती हो...

इस  जहाँ  में  बस  एक  तुम  ही  मुझे समझ  पाती  हो.



याद  हैं  मुझे  जब  तुम  मुझे  चादर  का  झुला  बनाकर  सुलाती  थी...

नहीं  आती  थी  नींद  मुझे,  तब  तुम  गीत  गाकर  झुलाती  थी...

और  अपने  प्यारे - कोमल  हाथो  से  मेरे  गालो  को  सहलाती  हो...

माँ  तुम  मुझे  बहुत याद आती हो...



याद  हैं  मुझे  तुम्हारा  वो  कौवें  को  गाली  देना,

जब  आँगन  में  हाथ  से  मेरे  वो  रोटी  ले  जाता  था..

शब्द  नहीं होते थे मेरे पास, केवल रोना मुझे आता था...

चेहरे तरह-तरह के बनाकर तुम मुझे बहलाती हो

माँ  तुम  मुझे  बहुत याद आती हो...


याद  हैं  मुझे  पिताजी  की  डांट  " पढाई  में  नहीं  मन  हैं  "

और  तुम्हारा  यह  कहकर  बचाना  कि  " जाने  दो  जी  अभी  बचपन  हैं "

फिर  तुम  मेरे  उदास  मन  को  प्यार  से  समझती  हो ...

माँ  तुम  मुझे  बहुत याद आती हो...


आज  माँ  मैं  तुमसे  हजारो  मील  दूर  हूँ  ..

इस  संसार  कि  अनजानी  गलियों  में  भटकने  को  मजबूर  हूँ ..

पर  अब  भी  बंद  करने  पर  आँखे   इस  मानस  पटल  पर  तुम  ही  उभर  आती  हो...

माँ  तुम  मुझे  बहुत याद आती हो...


                                                        

वो देखो फिर एक सपना जल रहा हैं....













वो देखो फिर एक सपना जल रहा हैं..


उठते हुए धुँए में इंसां नया पल रहा हैं




देखा था जो सपना उस रात को

सोचा, समझा और जाना उस अनजानी बात को,

कि  कहीं  जिसे  समझा सूरज जीवन का, क्या अब वो ढल रहा हैं ?


वो देखो फिर एक सपना जल रहा हैं....



पाने  की  जिसे  हमने हज़ारो कोशिश की हैं

मन में  जिसके  लिए  हलकी सी किशश  भी हैं,

दूर होने का डर उससे, कहीं तो मुझे सल रहा हैं

वो देखो फिर एक सपना जल रहा हैं....




जो देखा मैंने सपना वो उसे समझाना हैं

रखने हैं खोल के पहलु सारे, सच वो बतलाना हैं

करना होगा यकीं खुद पर, नहीं तो इस बात को  मिल  बल रहा हैं  की ,

वो देखो फिर एक सपना जल रहा हैं....



उमंग भरी  जिसने  मेरे स्वपन में

और भरे रंग इस श्वेत-श्याम जीवन में,

हर हाल में पाना हैं उसे, उलझन का  मिल  यही हल रहा हैं.

वो देखो फिर एक सपना जल रहा हैं....

कभी दुशमी तो कभी सहेली

ज़िन्दगी कैसी हैं पहेली


अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




सोचते हैं क्या होता हैं क्या ?

करते हैं क्या होता हैं क्या ?

बहुत ही दिलचस्प हैं यह पहेली........

अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




जाना हैं दूर बहुत मंजिल पाने को

पर नज़र ही नहीं आता ये रास्ता जाने को

चल रहे हे अनजान डगर पर कोशिश हैं अलबेली.....

अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




जिसे अपना हम समझते हैं, पता नहीं वो हैं भी अपना

जिससे हम सोती रातो में गम बाटने का देखते थे जागता हुआ सपना

क्या कर पायेगा वो पार, ये काँटों से भरी देहली......

अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




रोज़ सोचता हूँ कि आज दिखाना हैं इस निर्दयी संसार को

जिन्दगी हैं मुश्किल पर, नामुमकिन नहीं हर बार वो

पर आ नहीं रहा समझ, कैंसे बुझाऊं ये अनसुलझी पहेली ……



अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली

मन क्युँ है तु आज उदास ?


मन क्युँ है तु आज उदास.
 क्या सोच रहा है किसकी है आस

किस बात की है तुझे पीङा
  क्युँ उठा रखा है नही बताने का बीङा
क्युँ बन रहा है तु अँधियारे का दास..
क्या सोच रहा है किसकी है आस....

क्युँ जागते हुए भी सोता है
  मन ही मन न जाने क्युँ रोता है
पीने का है मन फिर क्युँ नही पीता है
जब बोतल रखी है पास....
मन क्युँ है तु आज उदास...

देख नया सवेरा आयेगा
आशाओ कि किरण लायेगा
उठ जाग और पा ले सपने
याद करे तुझे पराये और अपने
कुछ इस तरह जीवन को तराश...

मन क्युँ है तु आज उदास....
 क्या सोच रहा है किसकी है आस
    क्युँ है तु आज उदास....
 

बरस क्यों नही जाते हो......


ओ बादलो क्यों तरसाते हो
इस मरुभुमि पर बरस क्यों नही जाते हो

सोने कि सी इस मिट्टी पर
वीरो की इस जननी पर
क्यों हलधरो को तरसाते हो
ओ मेघदुतो बरस क्यों नही जाते हो....
इस मरुभुमि पर बरस क्यों नही जाते हो....

जहाँ सुरज रोद्र रुप दिखलाता है
पत्ता-पत्ता गर्मी से कुम्हलाता है
ऐसे तरुओ व लोगो को क्यों तड़पाते हो
ओ मेघो बरस क्यों नही जाते हो.....

तुम बरसो ताकि हो हरियाली
हरियाली से चारो तरफ फैले खुशहाली
इस भुमि से क्यों सुखे ही चले जाते हो
ओ मेघो बरस क्यों नही जाते हो.....
इस मरुभुमि पर बरस क्यों नही जाते हो