कभी दुशमी तो कभी सहेली

ज़िन्दगी कैसी हैं पहेली


अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




सोचते हैं क्या होता हैं क्या ?

करते हैं क्या होता हैं क्या ?

बहुत ही दिलचस्प हैं यह पहेली........

अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




जाना हैं दूर बहुत मंजिल पाने को

पर नज़र ही नहीं आता ये रास्ता जाने को

चल रहे हे अनजान डगर पर कोशिश हैं अलबेली.....

अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




जिसे अपना हम समझते हैं, पता नहीं वो हैं भी अपना

जिससे हम सोती रातो में गम बाटने का देखते थे जागता हुआ सपना

क्या कर पायेगा वो पार, ये काँटों से भरी देहली......

अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली




रोज़ सोचता हूँ कि आज दिखाना हैं इस निर्दयी संसार को

जिन्दगी हैं मुश्किल पर, नामुमकिन नहीं हर बार वो

पर आ नहीं रहा समझ, कैंसे बुझाऊं ये अनसुलझी पहेली ……



अनजानी सी कभी दुशमी तो कभी सहेली